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पंचकोसी परिक्रमा के अंतिम दिन श्रद्धालुओं ने लिट्टी-चोखा खाकर निभाई त्रेतायुगीन परंपरा

 

विश्व में केवल बक्सर ही है, जहां हजारों लोग एक साथ गोइठा की आग पर सेंकते हैं सत्तू वाली लिट्टी

बीआरएन बक्सर । “माई बिसरी बाबू बिसरी, बाकि पचकोसवा के लिट्टी-चोखा ना बिसरी” — यह प्रसिद्ध भोजपुरी लोकोक्ति रविवार को चरित्रवन में साकार होती दिखी। पंचकोसी परिक्रमा के पांचवें और अंतिम दिन बक्सर के चरित्रवन में हजारों श्रद्धालुओं ने गोइठा (उपला) की आग पर लिट्टी-चोखा बनाकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया।

त्रेतायुग से चली आ रही इस लोकपरंपरा का निर्वहन करने के लिए सुबह से ही श्रद्धालु किला मैदान और चरित्रवन क्षेत्र में जुटने लगे थे। पूरे इलाके में उपलों की आग से धुआं फैल गया था। जहां जगह मिली, वहीं श्रद्धालु “अहड़ा” जलाकर लिट्टी सेंकने लगे। जैसे ही किसी की लिट्टी तैयार होती, तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी स्थान पर अपनी लिट्टी सेंकने का इंतजाम कर लेता।

ग्रामीण क्षेत्रों से आए श्रद्धालुओं की भीड़ दिनभर बनी रही, जबकि शाम होते ही शहरवासी अपने परिवार के साथ वहां पहुंचकर लिट्टी-चोखा बनाने और प्रसाद के रूप में ग्रहण करने लगे। देर रात तक यह परंपरागत मेला चलता रहा।

विश्वप्रसिद्ध पंचकोसी मेला से जुड़ी पौराणिक कथा

पौराणिक मान्यता के अनुसार, त्रेतायुग में ताड़का, सुबाहु और मारीच जैसे राक्षस महर्षि विश्वामित्र के यज्ञ को नष्ट कर दिया करते थे। तब महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या के राजा दशरथ से यज्ञ की रक्षा हेतु श्रीराम और लक्ष्मण को मांगा। दोनों भाई बक्सर स्थित उनके आश्रम आए और राक्षसों का संहार कर यज्ञ को सफल बनाया।

इसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण विभिन्न ऋषियों का आशीर्वाद लेने के लिए निकले और उन्होंने जिस पंचकोसी यात्रा को पूरा किया, वही आज “पंचकोसी परिक्रमा” के रूप में प्रसिद्ध है।श्रद्धा और आस्था का यह अनूठा संगम आज भी उतना ही जीवंत है जितना त्रेतायुग में रहा होगा। आधुनिक जीवनशैली में रमे लोग भी इस अवसर पर परंपरा से जुड़ते हैं और गोइठा की आग पर सिकी लिट्टी-चोखा को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर आनंदित होते हैं। बिहार की पहचान बन चुकी लिट्टी-चोखा इस दिन केवल भोजन नहीं, बल्कि भगवान श्रीराम का प्रसाद बन जाता है। इसी के साथ पंचकोसी यात्रा का समापन लिट्टी-चोखा मेले के रूप में होता है — जो बक्सर की अस्मिता और आस्था का प्रतीक है।

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