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अपनी भूमि की तलाश मे निकल पडे है नेताजी !

चुनाव की आहट सुनते ही जाति-संप्रदाय का चोला पहन  घुम रहे है नेता जी ! 

राजेश चौबे , बक्सर। 

लोकसभा का चुनाव नजदीक होता जा रहा है , और कई नये चेहरे उम्मीदवारी का दावा पेश करते हुए अपनी भूमि की तलाश मे निकल पडे है । तो कई और अभी निकलने को सोच रहे है । जी हां , आप लोगों ने हरिशंकर परसाई का व्यंग्य लेख ” भेडें और भेडिया ” तो अवश्य पढा ही होगा । जहां भेडें जनता की और भेडिया नेताओं का प्रतीक है , तो वहीं बुढा सियार नेता जी के चमचों का । सोचिये जरा ….अगर बुढा सियार नही रहता तो भावना मे बह जाने वाली कोमल- कोमल भेड़ों को अपना आहार बनाने के लिए भेडिया को क्षणिक सज्जनता का पाठ पढाते हुए मुंह मे हरी घास लेकर शाकाहारी होने और भेडों का हमदर्द बनने की नौटंकी की सीख भला कौन देता !

पांच सालों मे चार साल तक नेता जी लोग काम नही करते है , लेकिन चुनाव की आहट सुनते ही जाति-संप्रदाय के चोला को चिकित्सा शिविर, कंबल वितरण वाहन जागरूकता जैसे अभियानों के पोस्टर व बैनर के रंगों से अपने मनपसंद क्षेत्र को रंगना शुरु कर देते है । यह किसी एक नेता की बात नही है, इस अभियान में सभी नेता अपनी सम्पूर्ण क्षमता से छद्म-लोकोपकारी प्रदर्शन में आकंठ लिप्त हो जाते हैं। यहीं हकीकत है ,  देखते जाईये अभी और आयेंगे जनता के क्षणिक हमदर्द, जो जनता को ही नही बल्कि पार्टियों के हाईकमान को भी लुभाने मे कोई कसर नही छोडने वाले है । चिकित्सा शिविर और बाईक जागरूकता अभियान तो केवल बहाना है असली तो चंद दिनों की राजनीति कर पल भर मे ही अपनी दावेदारी को मजबूत करना उद्देश्य है । बेचारे पांच साल तक पार्टी का झोला ढोने वाले कार्यकर्ताओं को अपने दिल पर पत्थर रखकर रुआंसे आवाज मे बोलना पड रहा है – ” नयका भईया जिन्दाबाद!”

 

जनता भी अब समझ रही है कि जैसे ही किसी एक की उम्मीदवारी सुनिश्चित होगी , शेष ऐसे भागेंगे जैसे सुबह की ओस । जनता को फिर इंतजार करना पडेगा क्योंकि वे तभी निकलेंगे जब अगले किसी चुनाव की आहट होगी। भोजपुरी मे कहावत है कि भादो वाले बेंग (मेढक) तभी निकलते है , जब बारीश होती है ।

 

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