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मानव जीवन में संतुलित क्रोध भी है स्वीकार्य – रणधीर ओझा

बीआरएन बक्सर। नगर के नया बाजार स्थित श्री सीताराम विवाह महोत्सव आश्रम में महंत राजाराम शरण दास जी महाराज के मंगलानुशासन आयोजित नव दिवसीय राम कथा 4 बजे से सायं 7 बजे तक चल रही है । कथा के पांचवे दिन आचार्य श्री रणधीर ओझा ने श्रीरामचरितमानस में वर्णित मानस रोगों की चर्चा करते हुए कहा कि व्यक्ति को जीवन में दो प्रकार के रोगों (कष्टों) का सामना करना पड़ता है। पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक रोग ।
आयुर्वेद शास्त्र की मान्यता है कि प्रत्येक मनुष्य के शरीर में वात, पित्त और कफ ये तीन तत्व विद्यमान रहते हैं। इन तीनों के द्वारा ही मनुष्य स्वस्थ रहता है। परंतु इसके असंतुलन से विभिन्न प्रकार के रोग जन्म लेते हैं। आयुर्वेद का जो सिद्धांत शरीर की स्वस्थता के संदर्भ में लागू होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है कि व्यक्ति के मन में काम, क्रोध, लोभ रहते हैं । लेकिन प्रश्न होता है कि क्या मन में इसे दुर्गुण मानकर पूरी तरह मिटा देना चाहिए। गोस्वामी जी के मतानुसार काम, क्रोध , लोभ की निंदा कितनी भी की जाए, परंतु स्वस्थ व्यक्ति के लिए इनकी भी आवश्यकता है। बशर्ते, इनको संतुलित रखने में व्यक्ति समर्थ हो। उन्होंने कहा कि जीवन से यदि काम को हटा दिया जाए तो सृष्टि समाप्त हो जायेगी । इसी प्रकार यदि मन में पित्त रुपी क्रोध ना हो तो बुराई, अन्यायी, अत्याचार से कौन लड़ेगा। सामाजिक जीवन छीन- भिन्न हो जाएगा। अतः मानव जीवन में संतुलित क्रोध को भी स्वीकार किया गया है। मनुष्य अपने जीवन में जो कार्य करता है कर्म की उससे प्रेरणा मिलती है और उसके मूल में लोभ ही होता है। लोभ के अभाव में उसकी क्रियाशीलता, कर्मठता ही समाप्त हो जाएगी। आचार्य ने आगे बताया कि जब कोई कामना ही नहीं रहेगी तो व्यक्ति कर्म पथ पर अग्रसर क्यों होगा ? राम कथा में काम, क्रोध लोभ तीनों की आवश्यकता बताई गई है । हमारे धर्मशास्त्र इन्हे स्वीकार करते है । श्रीरामचरितमानस आदेश देता है। इनका उपयोग धर्मानुसार को संतुलित मात्रा में हो जो हम सभी के जीवन, समाज एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी होगा।

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